| ماه آن شب خمـوش و ســرگردان  | 
 | روی صحـــرا و دشت میتـــابید | 
| نور غمرنگ و حُــزن پـــرور مـاه  | 
 | همه جــــا را نموده بـــود سپید | 
| دانـه دانـه سـتاره بــر رخ چـرخ | 
 | هـمچــو اشـک یـتیم مـیلرزیـد | 
| خوب گستــرده بـود خـــاموشی  | 
 | بـر جـهـان پــــرده فـرامـوشی | 
| مــرغ شـب آرمـیده بـــود آرام | 
 | چـشـم ایـام رفـته بـود بـه خواب | 
| سـایه نـخــلها بـه چـهره نـور | 
 | از سـیـاهی کشیـده بـود حـجـاب | 
| بـــاد در جستجوی گمشــدهای  | 
 | چرخ میزد چـــو عـاشقی بی تاب | 
| غـــرق شهـــر مدینه سر تـا سر  | 
 | در سکـــوتی عمیق و رعـــب آور | 
| مـی کشید انتظـار خـاک آن شـب  | 
 | مـقــــدم تــــازه مـیهمـانی را | 
| مـی ربـود از کـف گـران مــردی  | 
 | آسـمــــان هـمـسـر جــوانی را | 
| آتـش مــرگ مـادری میسوخت  | 
 | دل اطـــــفال خــسته جــانی را | 
| مـــــردم آرام لیـک آهـستـه  | 
 | نوحه گــــر چند طفـل دل خسته | 
| بر سـر دوش جسم بــی جـــانی  | 
 | حمل میشد به نقطـــهای مـرمـوز | 
| همـه خـــواهان به دل درازی شب  | 
 | گر چه شب تلخ بود و طاقت ســـوز | 
| تـا مـگر راز شـب نگــردد فـاش  | 
 | نَـبَـــرد پـی بــه راز شـب دل روز | 
| راز شـب بـود پیـکـر زهـــــرا  | 
 | که شب آغوش خـــاک گشتش جا | 
| راز شـب بـود بـانــویی مـعصـوم | 
 | کـه چـو او مـردی از زمـانـه نـزاد | 
| هـیجـده سـاله بـانویی پـُر شـورکـه  | 
 | سیـــه کـرده چـهـره بیـداد | 
| بانویی کـز سـخن بــه محـضر آن | 
 | ریخت آتـش به جــــان استبـداد | 
| بانویی شیر دل، دلیــر و شجـــاع | 
 | که نمود از حقوق خــــویش دفـاع | 
| گـر چـه زن بـود لیـک مــردانـه  | 
 | از قیـام آتشی عظـیم افـــروخت | 
| شعلهای برکشید از دل خـــویش  | 
 | که سیــه خـــرمنِ ستم را سوخت | 
| درس احـقاق حـق و دفـــع ستم  | 
 | بـه جهـان و جهــانیـان آمــوخت | 
| مـــردم خفته را ز خواب انگیخت  | 
 | آبـــــروی ستمگــران را ریـخت[1] | 
[1]. مرحوم سید محمد حسین شهریار، شاعر معروف و نامی معاصر.
 
					 
					 
					 
		 
			 
			